युद्ध दूसरों से नहीं स्वयं से ही करें
दुनियां में युद्ध की स्थिति व प्रसंग भी आ जाते है व दो समूहों में भी युद्ध की स्थिति बन सकती है | शास्त्रकार ने स्वयं के साथ युद्ध करने की बात बताई है बाह्य युद्ध से कोई लाभ नहीं, अतः हमें आत्म युद्ध के द्वारा आत्मा पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, जिससे सुख व शांति की प्राप्ति हो जाय | इस युद्ध में शस्त्रों से युद्ध की बात नही होती | अकेला आदमी खुद से युद्ध कैसे करे ? आत्मा के आठ भेदों का वर्णन २५ बोल में उपलब्ध है | एक द्रव्य आत्मा व सात भाव आत्माएं | हमें कषाय आत्माओं के साथ युद्ध करके उन्हें परास्त करना है, यह हमारे भीतर का युद्ध है | हमारी भाव आत्मा प्रहार बुराइयों पर प्रहार करने वाली है व युद्ध करके उन पर विजय पा लेती है | वे बुराइयाँ है – गुस्सा, अहंकार, माया व लोभ | हमें उपशम से गुस्से पर, मार्दव व मृदुता से अहंकार पर, आर्जव व सरलता से माया पर व संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करनी है | इन चारों को जीतने के चार मध्यम व साधन हैं | ये क्षत्रु भी बड़े ताकतवर है और इन्हें परास्त करने के लिए सतत प्रयास की अपेक्षा होती है | गुस्सा जीवन में अशांति पैदा करता है, हम मृदु वाणी से अपने व दुसरे के गुस्से को कमजोर बना सकते है |
त्याग : अंगूर खाने का त्याग करें ।
9/11 (या धारणा अनुसार) द्रव्यों से ज्यादा खाने का त्याग करें।
संकल्प :-एक घंटा मौन या स्वाध्याय करने का संकल्प करे।
प्रत्याख्यान -- नवकारसी (सुर्योदय से ४८:०० मिनट बाद) /पोरसी / एकासन/उपवास करने का प्रत्याख्यान कर सकते।
ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे.......
चैत्य वास के पूर्व गण, कुल और शाखाओं का प्राचुर्य होते हुए भी उनमें पारस्परिक विग्रह या अपने गण का अहंकार नहीं था ।वे प्रायः अविरोधी थे ।अनेक गण का होना व्यवस्था- सम्मत था। गणों के नाम विभिन्न कारणों से परिवर्तित होते रहते थे। भगवान महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा के नाम से गण का नाम सोधर्म -गण कहा गया।समन्तभद्रसूरि ने वनवास स्वीकार किया, इसलिए उसे वनवासी गण कहा गया ।
चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष संविग्न , विधि- मार्ग या सुविहितमार्ग कहलाया और दुसरा पक्ष चैत्य वासी।
स्थानकवासी
इस संप्रदाय का उद्भव मूर्ति- पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोंकाशाह ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और आचार की कठोरता का पक्ष प्रबल किया। वे ग्रहस्थावस्था में ही थे ।इनकी परंपरा में ऋषि लवजी, आचार्य धर्मसिंह जी और आचार्य धर्मदास जी प्रभावशाली आचार्य हुए। आचार्य धर्मदास जी के निन्यानवें शिष्य थे ।उन्होंने अपने विद्वान शिष्य को बाईस भागों में बांटा और विभिन्न प्रांतों में उन्हें धर्म प्रचार करने के लिए भेजा। इसके बाद लोकांशाह का संप्रदाय बाईस टोला या बाईस सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।आगे चलकर स्थानकों की मुख्यता के कारण यही "स्थानकवासी' संप्रदाय के नाम से पहचाने जाने लगा ।वर्तमान में इनका नाम 'श्रमण संघ' कर दिया गया है और यह भी अनेक विभागों में विभक्त दिखाई देता है।
तेरापंथ
स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य 'संत भीखणजी' आचार्य भिक्षु ने विक्रम संवत 1817 में तेरापंथ धर्म का प्रवर्तन किया। आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और संगठन पर बल दिया। एक सुत्रता के लिए उन्होंने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया, शिष्य-प्रथा को समाप्त कर दिया। थोड़े ही समय में एक आचार्य, एक अचार और एक विचार के लिए तेरापंथ प्रसिद्ध हो गया। आचार्य भिक्षु आगम के अनुशीलन द्वारा कुछ नए तत्वों को प्रकाश में लाए। सामाजिक भूमिका में उस समय कुछ अपूर्व- से लगे। आध्यात्मिक दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान है। कुछ तथ्य वर्तमान समाज के पथ-दर्शक बन गए हैं।
दिगम्बर
दिगम्बर परंपरा भी एक रुप नहीं रही। वह अनेक संघों में विभक्त हो गई ।उसमें मूल पांच संघ है -- मूल संघ, यापनीय संघ ,द्राविड़ संघ, काष्ठा संघ और माथुर संघ। वर्तमान में उसके कई सम्प्रदाय है तेरापंथ,बीसपंथ तारणपंथ आदि।
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